मुस्कान
—देवेंद्र गौतम
अठारह साल की नज़मा की गोद में दो साल का बच्चा था। बच्चा जब भूख से रोता तो
उसका अपना कलेजा फटता। पति ठेला चलाता था, लेकिन कमाई सीधे दारू और ऑनलाइन कैसीनो की भेंट
चढ़ जाती। नजमा को समझ आ गया था—अगर बेटे को जिंदा रखना है, तो उसे खुद कुछ करना होगा।
दिन-भर गोद में बच्चे को लिए इधर-उधर भटकती। कभी किसी के दरवाज़े पर
झाड़ू-पोंछे का काम पूछती, कभी किसी घर में बच्चों की आया बनने की कोशिश करती। लेकिन
हर बार उसकी पहचान उसके सामने दीवार बन जाती।
"माफ कीजिए बहन, हमें कामवाली तो चाहिए, पर... आपके लिए मुश्किल
होगा। हमारे यहां सब लोग थोड़ा... आप समझ रही हैं ना?"
वह मुस्करा
देती। समझती थी। बहुत अच्छे से समझती थी।
एक दिन वह एक वीआईपी कॉलोनी में पहुंची। एक आलीशान बंगले का गेट खटखटाया।
दरवाज़ा एक स्मार्ट और आत्मविश्वासी औरत ने खोला।
“नाम?”
“नजमा।”
औरत कुछ पल चुप
रही। फिर कहा, “देखो, मुझे तुम्हारे धर्म से कोई परेशानी नहीं है। पर मेरे पड़ोसी
और रिश्तेदार... वे बहुत कुछ सोचते हैं। एक ही शर्त पर रख सकती हूं—काम के वक्त
अपना नाम ‘मुस्कान’ रखना पड़ेगा।”
नजमा चुप रही। सिर झुकाए खड़ी रही। महिला ने फिर कहा,
“तुम्हें
परेशानी हो तो मना कर सकती हो।”
नजमा ने धीरे
से सिर हिलाया — “नहीं, मैं काम करूंगी।”
वह बंगले के भीतर तो आ गई, नाम भी बदल लिया — मुस्कान बन गई। बच्चे को पीछे वाले छोटे
कमरे में सुला दिया। काम में खुद को झोंक दिया। झाड़ू, पोंछा, बर्तन, खाना... सब
कुछ।
मगर एक बात जो उसे सबसे कठिन लगी — वो थी मुस्कान बनना।
उसने आईने में देखा — चेहरा वही था, नाम नया था... पर होठों पर मुस्कान नहीं थी।
दिन बीतते गए। वह काम सीख गई, लोगों से व्यवहार करना भी। लोग कहते, “मुस्कान बड़ी
समझदार है।”
पर हर बार जब वह आईने में खुद को देखती, उसे लगता —
नाम मुस्कान रख
लिया है, पर मुस्कान लाएगी कहां से?
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